Monday, December 8, 2008

धमाकों के तमाचों से आंखें तो खुली होंगी, गर अब भी न उठा हाथ तो यह बुज़दिली होगी। चूहे-बिल्ली का यह खेल आखिर कब तक चलेगा, आज दहली है मुंबई, कल ख़ाक में दिल्ली होगी। है गफ़लत कि ऊंघती सरकारें जागेंगी धमाकों के शोर से, सियासतदानों की कुछ देर को महज कुर्सी हिली होगी। ज़ंग ज़रूरत है अमन की हिफाज़त के लिए वरना, ख़िज़ा के साये तले सहमी चमन की हर कली होगी। "सौ सुनार की तो एक लोहार की" याद रहे "कुरील", जब हम लेंगे हिसाब तो हर चोट की वसूली होगी।

1 comment:

Akki said...

too good hai sirjee...
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